Post Write By-UpendraArya
मेरी स्मृति में दर्ज मीना, सविता, कजरी, रीता, सुगंधा और सीमा आज भी अक्सर सुबह के सपनों में आ जाती हैं. कई बार जब मैं लम्बी सड़क यात्राओं पर होती हूं तब ऐसी ही पिछली किसी सड़क यात्रा के दौरान मिली नीतू, कविता, रबिया और सावनी के चेहरे अचानक मेरे आसपास से गुज़रते जंगलों से झांकते हुए से नज़र आते हैं.
कभी अकेले में घर की खिड़की से झांककर कॉलोनी के पार्क में खेलते बच्चों को देखती हूं तो गुड़िया, शीनू, संगीता और रविता की खनकती आवाज़ कानों में फिर से कानों में गूंज जाती है.
यह सब वह औरतें और लड़कियां हैं जिनसे बतौर रिपोर्टर मेरी मुलाक़ात बीते 8 सालों के दौरान हुई है. इनमें से किसी के भी असली नाम यहां नहीं लिखे गए हैं. क्योंकि इनमें से ज़्यादातर या तो ख़ुद यौन हिंसा का शिकार हुई हैं या फिर पीड़िता की माएं और नज़दीकी परिजन हैं.
ऊपर लिखे नामों के साथ ही कई और महिलाएं भी हैं जिन्होंने गुज़रे सालों में ख़ुद पर बीती हिंसा के अंधेरे को मेरे साथ साझा किया.
इनमें से कुछ महिलाओं की कहानियां हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी किताब 'नो नेशन फ़ॉर विमन' में दर्ज हैं. भारत में बढ़ती यौन हिंसा पर लगातार रिपोर्टिंग के बाद लिखी गयी इस किताब में दर्ज कुल 13 चैप्टरों में शामिल बीसियों महिलाओं की ज़िंदगियों में से किसी की भी ज़िंदगी आज तक मेरी आंखों से ओझल नहीं हुई है.
लेकिन क्या कोई भी रिपोर्टर अपनी यात्राओं से लौटने के बाद उन किरदारों और उन कहानियों को वाकई छोड़ पाता है, जिसे कुछ ही घंटे पहले उसने इंसानी भरोसे और करुणा के एक नाज़ुक पुल पर चलकर हासिल किया था?
वो रुदन आज भी मेरे कानों में ताज़ा है
उदाहरण के लिए मुझे बुंदेलखंड के बीहड़ में मौजूद एक सूदूर गांव में मिली फूलबाई का चेहरा आज तक याद है. उनकी 14 साल की बेटी को बलात्कार के प्रयास के बाद ज़िंदा जला दिया गया था.
खड़ी बुंदेली में बात कर रही फूलबाई और मैं भले ही शुरुआत में एक दूसरे की भाषा ठीक-ठीक न समझ पा रहे हों, लेकिन हमारी आंखें संवाद कर रही थीं. मुझे याद है, फूलबाई ने अचानक अपनी एक कमरे की झोपड़ी के किसी कोने में छिपा कर रखा गई एक पुरानी पीतल की थाली उठाई और मेरे सामने उसे लेकर बैठ गयी. और फूट-फूट कर रोते हुए बोली, "यह परात मैंने अपनी मोड़ी (बेटी) के ब्याह के लिए पैसे जोड़-जोड़ कर ख़रीदा था. पर जला दिया... ख़राब करके ज़िंदा जला दिया उन्होंने मेरी मोड़ी को."
सात साल पहले का फूलबाई का यह रुदन आज भी मेरे कानों में ताज़ा है.
या पश्चिम बंगाल के बर्धमान ज़िले की उस माँ का रुदन जिनकी होनहार बेटी के शरीर को बलात्कार के बाद प्याज़ की परतों की तरह छीलकर उन्हीं के घर के पास बहने वाली नहर में फेंक दिया गया था.
या उत्तर प्रदेश के बदायूँ की उस माँ की चीख़ जिसकी नाबालिग बेटी को पड़ोस के थानेदार उठाकर ले गए थे. बलात्कार के बाद पुलिस की गाड़ी से घर के सामने छोड़ दी गयी इस बच्ची के पिता 'मेरा मुँह काला हो गया' कहते-कहते घटना के दस दिनों के भीतर ही इस दुनिया से कूच कर गए.
या त्रिपुरा की उस माँ की चीख़ जिनकी बेटी ने भारत के अंतिम छोर पर बसे एक दूर-दराज के आदिवासी गांव में स्थानीय पंचायत के चुनाव में खड़े होने का साहस दिखाया था. लेकिन चुनाव की तारीख़ से पहले ही बलात्कार के बाद बेटी की निर्मम हत्या कर दी गई. इन सभी माओं और बेटियों की आवाज़ें मेरे कानों में ज़िंदा हैं.
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