Why are women saying so much on sexual abuse?

ब्लॉग: औरतें यौन शोषण पर इतना बोलने क्यों लगी हैं?

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'स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है.'
वो पहली औरत कौन थी, जिसे बनाया गया. हम नहीं जानते. लेकिन ये फ़िक्र लाज़िम है कि वो आख़िरी औरत कौन होगी, जिसे बनाया जाएगा. क्योंकि उस आख़िरी औरत के बाद की औरतें बनाई नहीं गई होंगी. वो सिर्फ़ औरत होंगी.
भारत समेत पूरी दुनिया की औरतें उस आख़िरी औरत की तरफ बढ़ रही हैं, ताकि उसके बाद वो समाज की बनाई, दबाई और कुचली हुई औरतें न रह जाएं. जो सदियों से अपने बनने, हालात में ढाले जाने से तंग तो हैं, मगर इस बात से बेख़बर भी है.
#MeToo जैसे अभियान या किसी एक भी औरत का अपने साथ हो रहे शोषण पर चिल्लाना इसी ज़रूरी सफ़र का अहम पड़ाव है.
स्टीरियोटाइप बात है कि औरतें देखा-देखी में बहुत कुछ करती हैं. दूसरे का सुख देखकर हम सब अपना हिस्से का भी सुख खोजने लगते हैं. इस बात का शुक्र मनाइए कि यही नियम दुख और तकलीफ़ों को बयां करने में भी लागू हो रहा है
इसी नियम का प्यारा नतीजा है कि ये औरतें अब बहुत बोलने लगी हैं. इन औरतों ने अब 'औरत हो, औरत की तरह रहो' लाइन को ठेंगा दिखा दिया है. इन बड़बड़ाती हिम्मती औरतों ने 'की तरह रहो' को नहीं, अपने होने को फ़ाइनली समझा और चुना है.
अपने मन के भीतर छिपे बैठे एक पितृसत्तात्मक सोच वाले आदमी की भाषा में पूछूं तो अचानक इन औरतों की ज़बान, जो कल तक चलती नहीं थी... आज दौड़ने कैसे लगी? तो मन के भीतर कहीं आज़ाद बैठी औरत जवाब देना चाहती है.
वो वजहें या ट्रिगर गिनाना चाहती है, जिसके चलते शायद हॉलीवुड हीरोइनें, भारत में किसी भी ग्रेड की कोई कलाकार, स्कूली बच्चियां या अब महिला पत्रकार चीखकर कह रही हैं- हां, मेरे साथ कुछ ग़लत हुआ था. अभी दो मिनट पहले... दस, तीस साल पहले या मेरे पैदा होने के कुछ साल बाद.

आपको हमें इन औरतों पर आंख बंद करके न सही... आंख खोलकर यक़ीन करना होगा. जैसे हम सड़क हादसों, गर्भ से बच्चा गिरने, आत्महत्याओं की बातों पर शक नहीं करते. ठीक वैसे ही हमें इन औरतों पर यक़ीन करना होगा, ताकि उस औरत को अपने आसपास बेटी, मां, पत्नी, प्रेमिका, दोस्त या बहन की शक्ल में देख सकें, जो बनाई हुई न हों.

1: ख़ामोशी



पाश अपनी कविता की एक लाइन में कह गए, 'सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है, मगर सबसे ख़तरनाक नहीं...'
पाश और इस कविता को पढ़ने वाले बेहद कम लोग होंगे. लेकिन इस लाइन को जाने-अंजाने अपनी ज़िंदगी में उतारने वाले कम नहीं होंगे. ये संख्या इतनी ज़्यादा होगी कि अगर सबकी सहमी चुप्पी को जकड़न से रिहा किया जाए और सारी चीख़ों को मिला लिया जाए तो दुनिया भर के कानों को सुनाई देना बंद हो जाएगा.
सहमी सी चुप्पी में सबसे ज़्यादा औरतें जकड़ी रहीं और कई बार मर्द भी. मगर इस दुनिया का उसूल है कि मर्दों को माफ़ी मिल जाती है औरतों को नहीं. इसके ज़िम्मेदार जितने आदमी हैं, लगभग उतनी ही औरतें भी.
हम उस समाज में रहते हैं, जहां महाभारत में द्रौपदी की खींची जा रही साड़ी को रोकने के लिए गांधारी आंख की पट्टी हटाकर कुछ नहीं बोलती. लेकिन जब उसी 'बलात्कार' की कोशिश करते बेटे दुर्योधन की जान बचानी होती तो वो आंख की पट्टी खोल देती है.
प्रतिज्ञाओं की आड़ में महाभारत से लेकर 2018 के भारत में ख़ामोशी बरती जा रही है. मगर ये बीच-बीच में टूटती है. बॉलीवुड, साहित्य, राजनीति, शिक्षा, मीडिया या एक परिवार के भीतर. इसकी वजह कुछ भी हो सकती है.
वो एक अंतिम बात, जिसके बाद सांस लेना मुश्किल हो जाए. कोई सपना, फ़िल्मी सीन या 280 कैरेक्टर का कोई एक ट्वीट. हमें इन टूटती ख़ामोशी पर यक़ीन करना होगा.


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