भारतीय लड़की ने जीता Oscar Award || India is the Greatest country

भारत के एक गांव में सैनेटरी पैड बनाने वाली महिलाओं पर बनी डॉक्यूमेंट्री को ऑस्कर अवॉर्ड मिला है.


'पीरियडः इंड ऑफ सेन्टेंस' को बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट कैटेगरी में यह अवार्ड मिला है.
बीबीसी संवाददाता गीता पांडे ने ऑस्कर समारोह से पहले उन महिलाओं से उनके गांव में मुलाक़ात की थी.



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स्नेह 15 साल की थी, जब पहली बार उनका सामना माहवारी से हुआ था. उन्हें उस वक़्त समझ नहीं आया कि उनके साथ क्या हो रहा है.
जब मैं उनसे मिलने उनके गांव काठीखेड़ा पहुंची तो उन्होंने मुझे बताया, "मैं बहुत डरी हुई थी. मुझे लगा कि मैं कुछ गंभीर बीमारी की शिकार हो गई हूं और रोने लगी."
काठीखेड़ा राजधानी दिल्ली से बहुत दूर नहीं है.







"मुझे अपनी मां को बताने की हिम्मत नहीं थी इसलिए मैंने अपनी चाची से बात की. उन्होंने कहाः तुम अब बड़ी हो गई हो, रोओ मत, यह सामान्य बात है. उन्होंने ही इस बारे में मेरी मां बताया."

विकास की चकाचौंध से दूर हापुड़ का गांव

दिल्ली से महज 115 किलोमीटर दूर हापुड़ ज़िले का काठीखेड़ा गांव एक ऐसी जगह है जहां शहरी विकास आज भी नहीं पहुंचा है. वहां चकाचौंध बाजार और मॉल देखने को नहीं मिलेंगे.
आम तौर पर यहां दिल्ली से ढाई घंटे की यात्रा के बाद पहुंचा जा सकता है, हालांकि सड़कों की स्थिति ठीक नहीं होने की वजह से यात्रा थोड़ी लंबी हो जाती है.
हापुड़ जिला मुख्यालय से स्नेह का गांव करीब साढ़े सात किलोमीटर भीतर है.
डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग खेत-खलिहानों में की गई है. देश के अन्य इलाक़ों की तरह यहां भी माहवारी पर खुल कर बात नहीं करने की परंपरा है.
माहवारी के दौरान महिलाओं को अशुद्ध समझा जाता है और उसे समाजिक आयोजनों से बाहर कर दिया जाता है.

दिल्ली पुलिस में नौकरी की चाहत

भारतीय समाज में इस मुद्दे पर बात नहीं होने की वजह से स्नेह को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. पहली बार माहवारी होने से पहले स्नेह ने इसके बारे में कभी नहीं सुना था.
स्नेह कहती हैं, "यह एक ऐसा विषय था, जिस पर लड़कियों के बीच भी चर्चा नहीं होती थी."


लेकिन चीजें तब बदलने लगीं जब एक्शन इंडिया नाम के एक संस्थान ने महिला स्वास्थ्य के मुद्दों पर काम करना शुरू किया. संस्थान ने काठीखेड़ा में सैनेटरी पैड बनाने के लिए एक छोटी फैक्ट्री भी लगाई.
जनवरी 2017 में एक्शन इंडिया में काम करने वाली स्नेह की पड़ोसी सुमन ने उनसे पूछा कि क्या वो पैड बनाने वाली फैक्ट्री में काम करना चाहेंगी.
स्नेह ने उत्साहित होकर हां में जवाब दिया. ग्रेजुएशन कर चुकी स्नेह दिल्ली पुलिस में नौकरी का सपना देखती हैं. हालांकि गांव में जॉब के मौके कम होने की वजह से उन्होंने एक्शन इंडिया ज्वाइन करने का फ़ैसला किया.
वो अपने पिता को यह बताने में शर्मिंदगी महसूस कर रही थीं कि वो सैनेटरी पैड बनाने जा रही हैं, इसलिए उन्होंने उनसे कहा कि वो बच्चों को डायपर बनाएंगी.
स्नेह हंसते हुए कहती हैं, "नौकरी के दो महीने बाद मेरी मां ने पापा को बताया कि मैं पैड बना रही थी."
उन्हें उस वक़्त राहत महसूस हुई जब उनके पिता ने यह सुन कर कहा, "ठीक है, काम तो काम होता है."
आज इस छोटी फैक्ट्री में सात महिलाएं काम करती हैं. इनकी उम्र 18 से 31 साल तक है. सप्ताह में छह दिन सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक काम करने के इन्हें 2500 रुपए प्रति महीना मिलता है.
यहां रोज 600 पैड बनाए जाते हैं और उसे फ्लाई नाम के ब्रांड से बेचा जाता है.



70 फीसदी महिलाएं अब पैड इस्तेमाल करती हैं

स्नेह कहती हैं, "सबसे बड़ी समस्या जो हमारे सामने आती है वो है बिजली कटौती की. कभी-कभी हमें रात को काम पर वापस आना पड़ता है. "
गांव के घर के दो कमरों से चलने वाले इस छोटी फैक्ट्री ने महिला स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद की है. जब तक इस फैक्ट्री को चालू नहीं किया गया था, तब तक गांव की अधिकांश महिलाएं अपनी माहवारी के दौरान पुरानी साड़ियों या बेडशीट के कपड़े इस्तेमाल करती थीं.
अब गांव की 70 फीसदी महिलाएं पैड का इस्तेमाल करने लगी हैं. माहवारी की शर्मिंदगी को महिलाओं ने खुद खत्म किया है.
स्नेह कहती हैं कि अब माहवारी पर महिलाएं खुल कर बात करने लगी हैं लेकिन यह सबकुछ आसानी से नहीं हुआ है.
वो कहती हैं, "यह शुरुआत में काफी मुश्किल था. मुझे अपनी मां को घरेलू कार्यों में मदद करनी होती थी. मुझे पढ़ाई भी करनी थी और यह जॉब भी. परीक्षा के दौरान जब दबाव बढ़ जाता था तो मेरी जगह पर मेरी मां जॉब पर चली जाती थीं."


स्नेह के पिता राजेंद्र सिंह तंवर कहते हैं कि उन्हें अपनी बेटी पर बहुत गर्व है. "अगर उसके काम से समाज, ख़ासकर महिलाओं को फायदा हो रहा है तो यह मेरे लिए खुशी की बात है."

70 फीसदी महिलाएं अब पैड इस्तेमाल करती हैं

स्नेह कहती हैं, "सबसे बड़ी समस्या जो हमारे सामने आती है वो है बिजली कटौती की. कभी-कभी हमें रात को काम पर वापस आना पड़ता है. "
गांव के घर के दो कमरों से चलने वाले इस छोटी फैक्ट्री ने महिला स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद की है. जब तक इस फैक्ट्री को चालू नहीं किया गया था, तब तक गांव की अधिकांश महिलाएं अपनी माहवारी के दौरान पुरानी साड़ियों या बेडशीट के कपड़े इस्तेमाल करती थीं.
अब गांव की 70 फीसदी महिलाएं पैड का इस्तेमाल करने लगी हैं. माहवारी की शर्मिंदगी को महिलाओं ने खुद खत्म किया है.
स्नेह कहती हैं कि अब माहवारी पर महिलाएं खुल कर बात करने लगी हैं लेकिन यह सबकुछ आसानी से नहीं हुआ है.
वो कहती हैं, "यह शुरुआत में काफी मुश्किल था. मुझे अपनी मां को घरेलू कार्यों में मदद करनी होती थी. मुझे पढ़ाई भी करनी थी और यह जॉब भी. परीक्षा के दौरान जब दबाव बढ़ जाता था तो मेरी जगह पर मेरी मां जॉब पर चली जाती थीं."


स्नेह के पिता राजेंद्र सिंह तंवर कहते हैं कि उन्हें अपनी बेटी पर बहुत गर्व है. "अगर उसके काम से समाज, ख़ासकर महिलाओं को फायदा हो रहा है तो यह मेरे लिए खुशी की बात है."
खुले आंख से सपने देख रही हूं
डॉक्यूमेंट्री में सुषमा कहती हैं कि उन्होंने अपनी कमाई से अपनी छोटी बेटी के लिए कपड़े खरीदे हैं.
वो हंसते हुए कहती हैं, "अगर मुझे पता होता कि यह फिल्म ऑस्कर ले लिए जाएगी तो मैं कुछ और अच्छी बात कहती."


सुषमा, स्नेह और उनके साथ काम करने वाली महिलाओं के ऑस्कर में फ़िल्म का नॉमिनेशन उनके लिए एक बड़ी बात है. फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर भी मौजूद है.
लॉस एंजिल्स जाने से पहले उनके पड़ोसी स्नेह से काफी खुश हैं. उनका कहना है कि उन्होंने गांव का नाम दुनिया में रौशन किया है.
वो कहती हैं, "काठीखेड़ा के किसी भी व्यक्ति ने कभी विदेश यात्रा नहीं की है, इसलिए ऐसा करने वाली मैं पहली बनूंगी."
"लोग अब मुझे गांव में पहचानने लगे हैं और वो मुझ पर गर्व करने लगे हैं."
स्नेह कहती हैं कि उन्होंने ऑस्कर के बारे में पहले सुना था और उन्हें यह भी पता है कि यह सिनेमा की दुनिया का सबसे बड़ा अवार्ड है.
उसने कभी नहीं सोचा था कि वो इस बड़े आयोजन में शामिल होंगी और रेड कार्पेट पर चलेंगी.


"मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं अमरीका जाऊंगी. मेरे लिए नॉमिनेशन ही पुरस्कार है. यह एक सपने की तरह है जो मैं खुली आंखों से देख रही हूं."




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