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         म्यांमार में फ़ेसबुक कैसे बन गया 'जानवर'




दशकों के जातीय और धार्मिक तनाव, इंटरनेट की विस्फ़ोटक पहुंच और एक ऐसी कंपनी जिसे नफ़रत फैलाने वाले पोस्ट को पहचानने और हटाने में परेशानी हुई.
ये सब बातें मिलकर म्यांमार में हुई बर्बादी की कहानी कहती हैं.
संयुक्त राष्ट्र का भी कहना है कि रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ गुस्सा भड़काने में फ़ेसबुक की "निश्चित भूमिका" थी.
मार्च में म्यांमार में मानवाधिकारों पर यूएन के नियुक्त विशेष दूत यांगी ली ने कहा था, "मुझे डर है कि फ़ेसबुक अब एक जानवर में तब्दील हो गया है जो इसकी असली मंशा नहीं थी."
कंपनी ने अपनी नाकामी को स्वीकार किया और समस्या का समाधान खोजने लगी है. लेकिन एक दक्षिण-पूर्व एशियाई देश में फ़ेसबुक का खुली और एक-दूसरे से जुड़ी दुनिया का सपना ग़लत कैसे साबित हुआ?
म्यांमार में जातीय समूहों के बीच सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए काम करने वाले संगठन 'सिनर्जी' के निदेशक थेट स्वीई विन कहते हैं, "आजकल, हर कोई इंटरनेट का उपयोग कर सकता है."
लेकिन पांच साल पहले म्यांमार में ऐसा नहीं था.

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जब सेना ने देश पर शासन किया, उन दशकों में बाहरी प्रभाव को कम से कम पड़ने दिया गया. लेकिन लेकिन आंग सान सू ची की रिहाई और म्यांमार की नेता के रूप में उनके चुनाव के साथ सरकार ने व्यापार का उदारीकरण किया और इसमें टेलीकॉम सेक्टर भी शामिल था.
बीबीसी मीडिया एक्शन (बीबीसी की अंतरराष्ट्रीय विकास चैरिटी) की एलिज़ाबेथ मर्न्स के मुताबिक बाहरी प्रभाव अद्भुत था.
"पहले एक सिम कार्ड की कीमत लगभग 200 डॉलर थी. लेकिन 2013 में दूसरी टेलीकॉम कंपनियों के बाज़ार में आते ही एक सिम की कीमत 2 डॉलर हो गई. अचानक ही ये बेहद सुलभ हो गया."
और जब उन्हें एक सस्ता फ़ोन और एक सस्ता सिम कार्ड मिल गया तो एक ऐसा ऐप था जिसे म्यांमार में हर कोई चाहता था और वो था फ़ेसबुक.
कारण? गूगल और कुछ अन्य बड़े ऑनलाइन पोर्टल बर्मी टेक्स्ट को सपोर्ट नहीं करते थे लेकिन फ़ेसबुक करता था.
एलिज़ाबेथ कहती हैं, "लोग तुरंत इंटरनेट सपोर्ट करने वाले स्मार्ट फ़ोन ख़रीद रहे थे और फ़ोन की दुकान फ़ेसबुक ऐप डाउनलोड करने के बाद ही छोड़ते थे."

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थेट स्वीई विन का मानना ​​है कि पहले जनसंख्या के बड़े हिस्से को इंटरनेट का थोड़ा ही अनुभव था, इसलिए तब वे दुष्प्रचार और ग़लत जानकारी के जाल में फंस जाते थे.
विन ने बीबीसी ट्रेन्डिंग को बताया, "हमारे पास इंटरनेट साक्षरता नहीं है. हमारे पास इंटरनेट के इस्तेमाल को लेकर कोई ट्रेनिंग नहीं है जैसे कि न्यूज़ कैसे फ़िल्टर करें या इंटरनेट का प्रभावी ढंग से उपयोग कैसे करें. हमारे पास उस तरह की जानकारी नहीं थी."

सांस्कृतिक कठिनाई

लगभग 5 करोड़ की आबादी में वाले म्यांमार में 1 करोड़ 8 लाख के करीब नियमित फ़ेसबुक यूज़र्स हैं.
लेकिन करोड़ों लोगों को इंटरनेट देने वाली फ़ेसबुक और टेलीकॉम कंपनियां देश के अंदर जातीय और धार्मिक तनाव से जूझने के लिए तैयार नहीं हैं.
दुश्मनी की जड़ें बहुत गहरी हैं. रोहिंग्या समुदाय को बर्मा की नागरिकता से वंचित कर दिया गया है. बौद्ध शासक वर्ग में कई लोग तो उन्हें एक अलग जातीय समूह भी नहीं मानते हैं. इसकी बजाय वे उन्हें "बंगाली" कहते हैं और ये शब्द ज़ोर देते हैं कि रोहिंग्या समुदाय की पहचान बाकी देश से अलग है.
सरकार के मुताबिक पिछले साल उत्तर-पश्चिम रखाइन प्रांत में चरमपंथियों को उखाड़ फेंकने के लिए सैन्य अभियान चलाया गया था. इसका नतीजा ये मिला कि 7 लाख से ज़्यादा लोगों को पड़ोसी देश बांग्लादेश भागना पड़ा. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक ये दुनिया का सबसे तेज़ी से बढ़ रहा रिफ़्यूजी संकट है.

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संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि रखाइन प्रांत में नरसंहार और दूसरे इलाकों में मानवता के ख़िलाफ़ अपराधों के लिए म्यांमार की सेना के शीर्ष लोगों की जांच की जानी चाहिए. लेकिन म्यांमार सरकार ने इन आरोपों को ख़ारिज कर दिया है.
जातीय तनाव और एक उभरते सोशल मीडिया बाज़ार के जोड़ ने ज़हर का काम किया. म्यांमार में बड़े पैमाने पर इंटरनेट उपयोग की शुरुआत के बाद, रोहिंग्या के ख़िलाफ़ भड़काऊ पोस्ट नियमित रूप से फ़ेसबुक पर दिखाई देती रही हैं.
थेट स्वीई विन ने कहा कि वो उन रोहिंग्या विरोधी इंटरनेट सामग्री से भयभीत थे जो शेयर की जा रही थीं. उन्होंने बीबीसी ट्रेन्डिंग को बताया, "फ़ेसबुक को हथियार बनाया जा रहा है."
अगस्त में रॉयटर्स समाचार एजेंसी की जांच में रोहिंग्या और अन्य मुसलमानों पर हमला करती हज़ार से ज़्यादा बर्मी पोस्ट, टिप्पणियां और अश्लील तस्वीरें मिली थीं.
रॉयटर्स के संवाददाता स्टीव स्टीक्लो ने अपने बर्मा के सहकर्मियों के साथ रिपोर्ट पर काम किया है. उन्होंने बताया, "ईमानदारी से कहूं तो मैंने सोचा था कि हमें कुछ सौ ऐसे उदाहरण मिल पाएंगे जो बात रखने के लिए काफ़ी होंगे."
स्टीक्लो का कहना है कि कुछ सामग्री तो बेहद हिंसक थी.

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"पढ़ने में बहुत घृणित थी और मुझे लोगों से कहना पड़ रहा था कि 'क्या आप ठीक हैं? क्या आप ब्रेक लेना चाहते हैं?'
"जब मैंने उस सामग्री को फ़ेसबुक को भेजा, तो मैंने ईमेल पर एक चेतावनी भी लिखी कि आप यह जान लें कि ये बहुत परेशान करने वाली चीज़ें हैं.
स्टीक्लो कहते हैं, "ख़ास बात ये थी कि इसमें से कुछ सामग्री फ़ेसबुक पर पांच साल से मौजूद थी और जब हमने उन्हें अगस्त में जानकारी दी तब ही इसे हटा गया था"
स्टीक्लो और उनकी टीम ने जिन फ़ेसबुक पोस्ट की सूची बनाई उनमें से कई में रोहिंग्याओं को कुत्ता या सूअर कहा गया था.
स्टीकलो कहते हैं, "यह एक समूह को अपमानित करने का तरीका है. फिर जब नरसंहार जैसी घटनाएं होती हैं, तो इसके ख़िलाफ़ कोई सार्वजनिक तौर पर आवाज़ नहीं उठती क्योंकि लोग इन लोगों को इंसान समझते ही नहीं हैं."




रोहिंग्याओं की म्यांमार वापसी को लेकर दोनों देशों में हुआ समझौता

कर्मचारियों की कमी

रॉयटर्स ने जो पाया वो स्पष्ट रूप से फ़ेसबुक के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करती हैं. इसके बाद सभी पोस्ट्स को हटा दिया गया. हालांकि बीबीसी को अभी भी इसी तरह की मिलती जुलती चीज़ें मिली हैं जो अभी भी साइट पर लाइव हैं.
तो सोशल नेटवर्क इस बात को समझने में असफल क्यों रहा कि इसके प्रचार में कैसे इसका इस्तेमाल किया गया?
एक कारण ये था कि कंपनी को कुछ शब्दों को समझने में कठिनाई हुई थी.
उदाहरण के लिए, "कालार"- म्यांमार में मुस्लिमों के लिए अपमानजनक शब्द, तो दूसरी तरफ इसे काबुली चने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है.
2017 में कंपनी ने इन शब्दों को प्रतिबंधित कर दिया, लेकिन बाद में इसे प्रतिबंधित शब्दों से हटा दिया गया क्योंकि इस शब्द का दूसरा भी अर्थ होता है.
इसके अलावा सॉफ्टवेयर की समस्याएं भी थीं, इससे म्यांमार के कई यूज़र्स को फ़ेसबुक पर चिंताजनक सामग्री की रिपोर्ट कैसे करें ये निर्देश मोबाइल पर पढ़ने में मुश्किल होता था.
लेकिन कई आम समस्याएं भी थीं- जैसे बर्मी बोलने वाले कंटेंट पर नज़र रखने में कमी. रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक- कंपनी के पास 2014 में केवल एक ऐसा कर्मचारी था, अगले साल ये बढ़कर चार हो गया.
अब उनकी संख्या 60 पहुंच गई है और उम्मीद की जा रही है कि साल के अंत तक ये 100 तक पहुंच जाएंगी.

फ़ेसबुक, सोशल मीडियाइमेज कॉपीरइटDREW ANGERER/BBC
Image captionफ़ेसबुक की शेरिल सैंडबर्ग

दी गई कई चेतावनी

म्यांमार में फ़ेसबुक यूजर्स की संख्या बढ़ने के बाद, कंपनी को कई लोगों से चेतावनी मिली कि किस तरह इस प्लेटफॉर्म का उपयोग रोहिंग्या विरोधी नफ़रत फ़ैलाने के लिए किया जा रहा है.
2013 में डॉक्यूमेन्टरी बनाने वाले ऑस्ट्रेलियाई एला कलॉन ने एक वरिष्ठ फ़ेसबुक मैनेजर के सामने ये समस्याएं उठाईं. अगले साल ही डॉक्टरेट के छात्र मैट शिसलर ने कर्मचारियों से कई बार बात की और इसके बाद कुछ सामग्री हटा दी गई.
कैलिफोर्निया स्थित फ़ेसबुक के मुख्यालय में स्थित मैनेजर्स के सामने यह दिखाने के लिए म्यांमार में कैसे इस प्लेटफॉर्म के उपयोग से नफ़रत फ़ैलाया जा रहा है, 2015 में टेक एक्सपर्ट डेविड मैडेन एक प्रेजेंटेशन दिखाने वहां गए.
उन्होंने रॉयटर्स से कहा, "उन्हें कई बार चेतावनी दी गई. लेकिन यह स्पष्ट रूप से पेश नहीं किया जा सका और उन्होंने आवश्यक कदम नहीं उठाए."

फ़ेसबुक, सोशल मीडिया

कई अकाउंट बंद किए गए

फ़ेसबुक से जब बात करने की कोशिश की गई तो उन्होंने अनुरोधों को कोई जवाब नहीं दिया.
पिछले साल से, कंपनी ने कुछ कार्रवाई करना शुरू किया है. फ़ेसबुक ने बर्मी अधिकारियों से जुड़े 18 अकाउंट और 52 पेज हटा दिए.
कंपनी ने कहा, "इनमें से कई व्यक्तियों और संगठनों के देश में मानवाधिकार के गंभीर दुरुपयोग के सबूत मिले हैं."
बंद किए गए फ़ेसबुक अकाउंट्स को करीब 1.2 करोड़ लोग फॉलो करते थे.


बेसहारा रोहिंग्या बच्चों का हो रहा है शोषण

एक बयान में फ़ेसबुक ने स्वीकार किया कि म्यांमार में ग़लतफहमी और नफ़रत को रोकना बहुत मुश्किल था और साथ ही यह भी स्वीकार किया कि जो देश इंटरनेट और सोशल मीडिया के लिए नए हैं उनमें इनके जरिए नफ़रत फ़ैलाना आसान है.
हेट स्पीच का मसला सितंबर के महीने में आया था, तब फ़ेसबुक के सीईओ शेरिल सैंडबर्ग अमरीकी सीनेट कमेटी के सामने पेशी हुई थी.
उन्होंने कहा, "हेट हमारी नीतियों के ख़िलाफ़ है और हम इस पर काबू पाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. हम नागरिक अधिकारों को लेकर बहुत सावधानी बरतते हैं."
जब मार्क ज़करबर्ग कांग्रेस के सामने अप्रैल में पेश हुए थे तो उनसे म्यांमार की घटनाओं के बारे में खास तौर पर पूछा गया था और उन्होंने कहा कि बर्मी बोलने वालों को भर्ती करने के अलावा कंपनी स्थानीय समूहों के साथ काम कर रही है ताकि म्यामांर और अन्य देशों में भविष्य में इस तरह के मुद्दों को पहचानने में मदद मिलेगी.
बीबीसी मीडिया एक्शन की एलिजाबेथ मर्न्स कहती हैं कि, "अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अब तकनीक को समझने की ज़रूरत है. और यह जानने की ज़रूरत है कि सोशल मीडिया पर उनके देश और अन्य देशों में क्या हो रहा है."

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