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नज़रियाः हिंदुओं में ग़ुस्सा है तो बुद्धि भ्रष्ट होने का ख़तरा भी - देवदत्त पट्टनायक







हिंदुओं को ग़ुस्सा क्यों आता है, इस विषय पर ज़्यादा बात नहीं की जाती.
ऐसा माना जाता है कि हिंदुओं को शांत और सहिष्णु होना चाहिए. इसलिए जब हिंदुओं को ग़ुस्सा आता है तो लोग चकित हो जाते हैं, स्तब्ध रह जाते हैं. वो समझते हैं कि ये तो हिंदू धर्म का मूल नहीं है.
आजकल चारों तरफ़ हिंदुओं का ग़ुस्सा बहुत दिखाई देता है, पर ज़्यादातर लोग इसे समझ नहीं पाते. समझने की कोशिश भी नहीं करते. ये बीमारी 100 साल से धीरे-धीरे बढ़ रही है और अब यह एक ज्वालामुखी की तरह फटा है.
इसकी वजह है कि हिंदुओं को लगता है कि देश भर के जो दूसरे धर्म के मानने वाले हैं, या वे लोग जो ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, वे हिंदू धर्म के विरुद्ध हैं. इन लोगों के लिखने में या बोलने में हिंदू विरोधी पूर्वाग्रह दिखाई देता है.
अगर आपको ईसाइयत को समझना हो तो आप बाइबिल पढ़ सकते हैं, इस्लाम को समझना है तो क़ुरआन पढ़ सकते हैं, लेकिन अगर हिंदू धर्म को समझना है तो कोई शास्त्र नहीं है जो यह समझा सके कि हिंदू धर्म क्या है. हिंदू धर्म शास्त्र पर नहीं बल्कि लोकविश्वास पर निर्भर है. इसका मौखिक परंपरा पर विश्वास है.






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हिंदू धर्म के रूप


उत्तर भारत का हिंदू धर्म, दक्षिण भारत के हिंदू धर्म से अलग है. पाँच सौ साल पहले का हिंदू धर्म आज के हिंदू धर्म से बहुत अलग है. हर जाति, हर प्रांत और भाषा में हिंदू धर्म के अलग-अलग रूप होते हैं. यह विविधता ज़्यादातर लोगों की समझ में नहीं आती.
हिंदू धर्म को हज़ारों साल से ग़लत समझा गया है. जब मुसलमान भारत आए तो उन्होंने हिंदुओं को बुतपरस्त कहा और मूर्तिपूजा की निंदा की. उनको लगा कि मूर्तिपूजा ही हिंदू धर्म है. जब अंग्रेज़ आए तो उन्होंने कहा कि यह 'बहुदेववाद' है जिसे उन्होंने झूठ या मिथ्या का दर्ज़ा दिया और एकेश्वरवाद को सत्य बताया.
इससे भारतीय लोग दबाव में आए. अगर आप आज़ादी की लड़ाई के दौरान किया गया लेखन पढ़ें तो भारतीय बुद्धिजीवी एक तरह से बचाव की मु्द्रा में नज़र आते हैं. अंग्रेज़ों के दौर के ज्यादातर बुद्धिजीवी उनकी बात मानते हुए दिखते हैं. उन्होंने हिंदू धर्म को समझने की बजाय उसको सुधारने की कोशिश शुरू की.







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उनके लेखन में हम देखते हैं कि सगुण भक्ति की निंदा, निर्गुण भक्ति की प्रशंसा, मूर्ति पूजा की निंदा, रीति-रिवाजों की निंदा - ये सब चलन में आया.
उन लोगों ने ऐसा हिंदू धर्म बनाने की कोशिश की जो पाश्चात्य धर्मों से जु़ड़ सकता हो. पाश्चात्य धर्मों में शास्त्र और नियम बहुत स्पष्ट हैं. एक प्रकार का सुधार आंदोलन शुरू हो गया.







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हिंदू धर्म की निंदा

हिंदू धर्म को एक ख़ास रूप देने का काम 200 साल पहले अंग्रेज़ों ने किया. और जब वो ये काम कर रहे थे तो उनकी जो पढ़ाई-लिखाई थी वो सब राजनीति से प्रेरित थी, इसलिए वे दिखाना चाहते थे कि हिंदू धर्म ईसाई धर्म से नीचे है.
धीरे-धीरे दुनिया जब धर्मनिरपेक्षता की तरफ़ गई तो हम अंग्रेज़ विद्वानों की जगह वामपंथी विचारकों की ओर देखने लगे. वामपंथी लोग धर्म को मानते ही नहीं है इसलिए वे हर धर्म की निंदा करते हैं. हिंदू धर्म की तो ख़ासतौर पर कड़ी निंदा करते हैं. उनके लेखन में ऐसा लगता है कि वे हिंदू धर्म का विश्लेषण कर रहे हैं या उसके बारे में लोगों को समझा रहे हैं, लेकिन किताबों के माध्यम से एक तरह का सुधार आंदोलन चलाया जाता है.
इस विचार में हिंदू धर्म को केवल स्त्री-विरोधी और जातिवादी मान लिया जाता है और हिंदू धर्म की बड़ी चीज़ों जैसे कि वेदांत को सिर्फ़ एक छलावा समझा जाता है.
वामपंथी विचारक समझाते हैं कि वेदांत और भारतीय दर्शन तो हाथी के दांत की तरह दिखाने के लिए हैं, हिंदू धर्म की सच्चाई तो जातिवाद ही है.







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बदलते पर्व और त्योहार

समानतावादी और धर्मनिरपेक्षवादी दुनिया में हर धर्म को एक जैसा नहीं देखा जाता. पैग़म्बर को ऐतिहासिक और अवतारों को काल्पनिक माना जाता है. सोशल मीडिया में भगवान की लीलाओं का मज़ाक उड़ाया जाता है.
हर विश्वास अंधा होता है, लेकिन हिंदुओं को लगता है कि केवल हिंदू धर्म की क्रियाओं और मान्यताओं को अंधविश्वास का दर्जा दिया जा रहा है.
दुनिया भर में यह बातें फैली हुई हैं. आप कहीं भी चले जाएं, हिंदू धर्म के बारे में लोग दो ही बातें करते हैं. एक तो ये कि हिंदू मूर्तिपूजक हैं और दूसरे वे जातिवादी हैं. या फिर नागा बाबाओं या संन्यासियों से जोड़ देते हैं. एक तरह से हिंदू धर्म को विचित्र दिखाने की कोशिश होती है जिससे उस पर विश्वास करने वाले लोगों को बुरा लगता है.
अगर आप अख़बार देखें तो जब हिंदू त्योहार आते हैं तो लोग हिंदुओं की बुराइयां करते हैं, जैसे दीपावली के दौरान प्रदूषण बढ़ने की बात आ जाती है. लगभग हर पूजा के मामले में ऐसा होता है. वे यह नहीं समझते कि औद्योगीकरण की वजह से पर्वों का रूप बहुत बदला है.
पहले ज़माने में फूल-पत्तों से पूजा होती थी, अब प्लास्टिक आ गया है, प्लास्टर ऑफ़ पेरिस आ गया है, बारूद आ गया है. त्योहारों का जो आधुनिक रूप है वो पर्यावरण के अनुकूल नहीं है. समस्या औद्योगीकरण और व्यावसायीकरण की है, धर्म की नहीं है. लेकिन लिखने वाले हमेशा धर्म की निंदा करते हैं.







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स्त्रीविरोधी है हिंदू धर्म?

हिंदू व्रतों के बारे में कहा जाता है कि वे स्त्री-विरोधी हैं. कहा जाता है कि सभी परंपराएं पुरुषों के वर्चस्व को बढ़ावा देती हैं, लेकिन ऐसा तो सभी धर्मों में है. जैसे इस्लाम में सब कुछ पुरुष प्रधान है, स्त्री पैग़ंबर की बात ही नहीं होती.
मदर मेरी के अपवाद को छोड़कर और कहीं स्त्रियों का ज़िक्र नहीं होता है, लेकिन इस पर कोई बात नहीं करता.
धर्म की बात होती है तो कहा जाता है कि भारत का सबसे अच्छा धर्म बौद्ध धर्म था जिसे ब्राह्मणों ने नष्ट कर दिया, इस्लाम ने तोड़ दिया. लेकिन कोई ये नहीं बताता कि बौद्ध धर्म भी पुरुष प्रधान है. विनय पिटक में समलैंगिकों (पालि भाषा में उन्हें पंडक कहा गया है) और स्त्रियों की निंदा की गई है.







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एक बात और कही जाती है कि हिंदू धर्म में मौलिक विचार नहीं हैं, सभी विचार यूनानियों, तुर्कों, फ़ारसियों और अंग्रेज़ों से आए हैं. ये भी बुद्धिजीवियों का एक विचार है कि भारत में मौलिक कुछ है ही नहीं.
अब तो अमरीका योग पर दावा जताने लगा है, कहा जाने लगा है कि योग का हिंदू धर्म या भारत से कोई संबंध ही नहीं है.
जब आपके विश्वासों को जान-बूझकर और लगातार ग़लत समझा जाता रहे तो ग़ुस्सा आना स्वाभाविक है. जो अकादमिक बुद्धिजीवी मानते हैं कि हिंदू धर्म में दूसरों को पाप करने से रोकने का प्रावधान ही नहीं है तो फिर इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि आपको ग़लत समझा जा रहा है या नहीं.
अगर हिंदू समझते हैं कि उनके विश्वासों को जान-बूझकर ग़लत समझा जा रहा है तो ये एक तरह की विडंबना ही है और सच को नकारने जैसा है. ऐसी बातें सुनकर हिंदुओं का ग़ुस्सा और भड़कता है.







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तो कुल मिलाकर ये कि इन्हीं बातों से लोगों को ग़ुस्सा आता है कि हिंदू धर्म को लोग ग़लत समझते हैं और उसे समझने की कोशिश करने कि बजाय उसे सुधारने का प्रयास करते रहते हैं.
कभी न कभी लोगों को गुस्सा तो आना ही था, पिछले 100 साल से जो बीमारी चल रही थी वो आज बहुत ज़ोरदार तरीक़े से सामने आई है.
लेकिन भगवद्गीता में लिखे को याद रखना चाहिए:




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